इश्क ने ”ग़ालिब” निकम्मा कर दिया
वरना हम भी आदमी थे काम के ।
इश्क में कहते हो हैरान हुये जाते हैं
ये नहीं कहते कि इन्सान हुए जाते हैं
ऐ इश्क तूने अक्सर कौमों को खा के छोड़ा
जिस घर से सर उठाया उसको बिठा के छोड़ा
कांटों से गुजर जाना, शोलों से निकल जाना
फूलों की बस्ती में जाना तो संभल जाना
दुश्मन को भी सीने से लगाना नहीं भूले
हम अपने बुजुर्गों का जमाना नहीं भूले
गम मुझे, हसरत मुझे, वहशत मुझे, सौदा मुझे
एक दिल देके खुदा ने दे दिया क्या क्या मुझे
मैं नजर से पी रहा हूं, ये समां बदल न जाए
न झुकाओ तुम निगाहें, कही रात ढल न जाए
पहलू से दिल को लेके वो कहते हैं नाज से
क्या आएं घर में आप ही जब मेहरबां न हों
हमें इक बार जी भर के पिला दे साकिया और फिर
हमारे नाम सारे शहर की रुस्वाइयां लिखना